कानून की विसंगतियां एवं कोविंद के प्रयत्न







 ललित गर्ग

जोधपुर के हाईकोर्ट के नवनिर्मित भवन के उद्घाटन समारोह में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भारत की कानून व्यवस्था की विसंगतियों एवं जटिल-खर्चीली प्रक्रिया को सहज-सरल एवं सर्वसुलभ बनाने की आवश्यकता व्यक्त करते हुए कहा है कि न्याय को जरा सस्ता करो, सर्वसुलभ करो, गरीब आदमी की हैसियत ही नहीं होती कि वह मुकदमा लड़ सके। गरीब आदमी को जैसे मैं शिक्षा और इलाज मुफ्त देने की वकालता करता हूं, वैसे ही उसे इन्साफ भी मुफ्त मिलना चाहिए। इसी अवसर पर भारत के मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबदे ने कहा है कि न्याय न्याय है, वह प्रतिशोध या बदला नहीं हो सकता है। इसीलिए किसी भी व्यक्ति का अपराध सिद्ध होने के पहले गुस्से में आकर उसको सजा दे देना उचित नहीं है। यही ठीक हो तो फिर देश में अदालतों की जरुरत ही क्या है? लोग अपने आप 'न्याय' करने लगेंगे तो ऐसा न्याय समाज में अराजकता फैला देगा।' बोबदेजी की बात से सहमत हुआ जा सकता है लेकिन प्रश्न यह भी है कि न्याय मिलने में सालों-साल लग जाएं और हजारों-लाखों रु. खर्च हो जाएं तो क्या आप उसे न्याय कहेंगे? न्याय में विलम्ब भी एक तरह का अन्याय ही है।
न्यायपालिका राष्ट्र की मजबूत आधारस्तम्भ हैं, उनकी कार्यप्रणाली एवं दायित्व निर्वाह पर प्रश्न चिन्ह लगना एक गंभीर एवं चिन्ताजनक स्थिति है। क्योंकि न्यायालय की लम्बी प्रक्रिया ने आम जनता को न्याय से महरूम कर दिया है। उसके विश्वास को तोड़ दिया है। देश के छोटे-बड़े सभी न्यायालयों में लगभग 3 करोड़ मुकदमे पैंडिंग हैं। कई तो 30-30 वर्षों से चल रहे हैं। संबंधित मर-खप गया, कई विदेश चले गये, कईयों को लापता घोषित कर दिया गया। न्याय में विलम्ब करना न्याय से इन्कार करना होता है। न्यायाधीशों पर भी अंगुली उठती है। भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। हजारों छोटे-बड़े न्यायालयों में न्यायधीशों की योग्यता पर भी चर्चा सुनते-पढ़ते हैं। न्यायालय के कार्यों में राजनैतिक हस्तक्षेप की बात आम है। निष्पक्ष होकर न्याय करने वाले भी कभी-कभी प्रभावित हो जाते हैं। जो फैसले निचली अदालतें करती हैं, उनमें से कई ऊंची अदालतों में जाकर उलट जाते हैं। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि अदालतों की बहसें और फैसले अंग्रेजी में होते हैं, जो वादी और प्रतिवादी के समझ के बाहर बने रहते हैं। न्याय के नाम पर यह अन्याय और ठगी आजादी के बाद भी देश में धड़ल्ले से चल रही है।
 न्यायपालिका की कार्य प्रणाली प्रामाणिक एवं त्वरित बने। वर्तमान व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए इनके फैसले मिसाल नहीं मशाल बनें। लेकिन विडम्बना है कि कानून ही अन्तिम सहारा होने के बावजूद उस पर संदेह के बादल मंडराते हुए देखे जाते हैं, इसकी बड़ी वजह मामलों की निष्पक्ष जांच न हो पाना, गवाहों को डरा-धमका या बरगला कर बयान बदलने के लिए तैयार कर लिया जाना है। यह अकारण नहीं है कि जिन मामलों में रसूख वाले लोग आरोपी होते हैं, उनमें सजा की दर लगभग न के बराबर है। लेकिन दूसरी और यह भी तथ्य देखने में आ रहा है कि देश में अनेक संवेदनशील कानूनों के अन्तर्गत फर्जी मामले अधिक दायर हो रहे हैं।
हमारे देश में कानून बनाना आसान है लेकिन उन कानूनों की क्रियान्विति समुचित ढं़ग से न होना, एक बड़ी विसंगति है। इसका कारण है- जनसंख्या के अनुपात में कम न्यायाधीशों का होना, न्यायाधीशों की नियुक्ति पर गतिरोध, पुलिस के पास साक्ष्यों का वैज्ञानिक ढंग से संग्रहण हेतु प्रशिक्षण का अभाव आदि। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार एवं उसकी जवाबदेही की कोई व्यवस्था नहीं है। न्यायिक प्रक्रिया का अपेक्षाकृत महंगी होना तथा विचाराधीन कैदियों के अधिकारों का हनन आदि भी कानून की विसंगतियां है। इन विसंगतियों के निवारण हेतु न्यायिक बैकलाग एवं देरी की समस्या से निपटने के लिये ब्रिटेन एवं सिंगापुर की तर्ज पर मुकदमों के निपटारों के लिये समय सीमा निश्चित की जानी चाहिये। फास्ट ट्रैक कोर्ट एवं वैकल्पिक विवाद निपटान प्रणाली को बढ़ावा देना चाहिये। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को कम करने एवं पारदर्शिता तथा जवाबदेहिता को बढ़ाने के लिये इसे ठोस एवं क्रांतिकारी कदम उठाये जाने अपेक्षित है। न्याय प्रक्रिया को सर्वसुलभ एवं समावेशी बनाने का प्रयास किया जाए एवं वकालत का माध्यम भारतीय भाषाएं को बनाया जाएं तो कुछ ही वर्षों में भारत की कानून प्रक्रिया में युगांतरकारी एवं क्रांतिकारी बदलाव देखने को मिल सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की पहल पर ही सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी वेबसाइट कई भारतीय भाषाओं में कर दी है।
कानून कोे सख्ती से लागू किये जाने की ज्यादा आवश्यकता है और उससे भी ज्यादा जरूरत इस बात की है कि इन कानूनों का दुरुपयोग करने वालों के खिलाफ और ज्यादा सख्त कार्यवाही की जाए। पॉक्सो कानून के सन्दर्भ में देखने को मिल रहा है कि समाज के निर्दोष लोगों को अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये इस तरह के फर्जी मामले बनाकर उन पर ये सख्त कानून लागू किये जाने की घटनाएं भी बढ़ रही है। यह स्थिति ज्यादा त्रासद एवं भयावह है। कुल मिलाकर अब समय आ गया है कि हम अपनी सोच बदलें। ऐसे मामलों की शिकायत दर्ज करने और जांचों आदि में जब तक प्रशासन का रवैया जाति, धर्म, समुदाय आदि के पूर्वाग्रहों और रसूखदार लोगों के प्रभाव से मुक्त नहीं होगा, इस तरह के कानूनों को आधार बनाकर अपने प्रतिद्वंद्वियों को दबाने, धन एठने एवं बदला लेने की भावना से ग्रस्त रहेंगे तब तक ऐसे फर्जी मामले बनाने की घटनाएं बढ़ती रहेगी।  
मूलभूत प्रश्न है कि समाज एवं शासन व्यवस्था को नियोजित करने के लिये कानून का सहारा ही क्यों लेना पड़ रहा हंै? कानूनमुक्त शासन व्यवस्था पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। भारत का मन कभी भी हिंसक नहीं रहा, लेकिन राजनीतिक स्वार्थों के लिये यहां हिंसा को जबरन रोपा जाता रहा है। हमें उन धारणाओं, मान्यताओं एवं स्वार्थी-संकीर्ण सोच को बदलना होगा ताकि इनको आधार बनाकर औरों के सन्दर्भ में गलतफहमियां, संदेह एवं आशंका की दीवारें इतनी ऊंची खड़ी कर दी हैं कि स्पष्टीकरण के साथ उन्हें मिटाकर सच तक पहुंचने के सारे रास्त ही बन्द हो गये हैं। ऐसी स्थितियों में कैसे कानून को प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकता है? कानून से ज्यादा जरूरी है व्यक्ति एवं समाज चेतना को जगाने की। समाज के किसी भी हिस्से में कहीं कुछ जीवनमूल्यों के विरुद्ध होता है तो हमें यह सोचकर चुप नहीं रहना चाहिए कि हमें क्या? गलत देखकर चुप रह जाना भी अपराध है। इसलिये बुराइयों से पलायन नहीं, उनका परिष्कार करना जरूरी हैं। ऐसा कहकर अपने दायित्व और कत्र्तव्य को विराम न दें कि सत्ता, समाज और साधना में तो आजकल यूं ही चलता है।
चिनगारी को छोटा समझ कर दावानल की संभावना को नकार देने वाला जीवन कभी सुरक्षा नहीं पा सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने एक पहल की है कि हम अपनी सोच बदलें। यह जिम्मेदारी केवल अदालतों की नहीं है, पूरी सामाजिक व्यवस्था की है। तीन तलाक के बहुचर्चित प्रसंग के बाद यह बहुत संगत है कि हम अपनी उन प्रथाओं पर भी एक नजर डालें जो कालांतर में कानून बन गईं। समाज एवं राष्ट्र की व्यवस्थाओं में कानूनों के माध्यम से सुधार की बजाय व्यक्ति-सुधार एवं समाज-सुधार को बल दिया जाना चाहिए। व्यक्ति की सोच को बदले बिना अपराधों पर नियंत्रण संभव नहीं है। भारतीय समाज का सांस्कृतिक चैतन्य जागृत करें। सामाजिक मर्यादाओं का भय हो, तभी कानून का भय भी होगा और तभी कोविंदजी के विचारों के अनुरूप न्यायपालिका का अभ्युदय होगा। प्रेषकः


 (ललित गर्ग)
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