कविता - हर पहरे पर ख़ाकी है

 




कविता - हर पहरे पर ख़ाकी है

 

एकसूत्र   एकसार  हो  भारत,  है  विपदा  में  डटा  हुआ।

तबलीगी  तालीमें   कैसी,  यह  एक  अंग  है  बटा  हुआ।

 

इस रुग्ण अंग की शल्यक्रिया, निश्चय ही अब करनी होगी।

यही  न्याय  का  प्रथम  सूत्र  है, करनी  जैसी भरनी होगी।

 

मरकज़   का   यह   दाग  बहुत  ही गहरा  है, पर  छूटेगा।

सिंह  का  संयम  जिस  दिन  भी,  श्वान  दलों  पर  टूटेगा।

 

घुन  और  घूस  सुने हैं  सबने, खाकर  थाली  छेद  रहे हैं।

भारत  में  ही  रहकर  ज़ाहिल,  मर्म  भारती  भेद  रहे हैं।

 

इस  नीयत  को,  नीति  को, धरा  कभी  ना  माफ़ करेगी।

मरकज़  के  इन  मंसूबों  का,  जनता  ही  इंसाफ  करेगी।

 

कोरोना  के इस  कहर  को, मिलकर भारत ख़ाक करेगा।

देश की  रक्षा  षडयंत्रों से, आज  फिर  अशफ़ाक करेगा।

 

हम  राष्ट्र  के  अनुयायी  हैं,  हिंसा   तजते  रहे  सदा  ही।

पर  तरकश  में  तीर  भरे  हैं, चढ़  आये  यदि विपदा ही।

 

साहचर्य   है   भाव   हमारा,   संयम   जिसकी  भाषा  है।

समझ  सका  ना जो  इसको, समझो  वह  हत  आशा है।

 

जिस घर खाओ  उसे  जलाओ, और रहा क्या शेष अभी।

सभी जानते हैं  गादुर ने भी, क्या नीड़ बुना है स्वयं कभी।

 

जीवन  रक्षक  गण से  अपने, जो  इतनी कटुता रखती हैं।

ललनाएँ  जिस  घर  परिसर  की,  प्रस्तर  प्रहार करती हैं।

 

किस  दृष्टि  से  देखें  उनको, कैसे  निज मन को समझाएं।

अमर  बेल  में  बूटी  कैसी,  फल  छाया  कोई  कैसे  पाए।

 

यह  अवसर  जब   ढाढस,  आपस  में  हैं  बंधा  रहे  सब।

छुरा  पीठ  में  भौंक जमाती, अफरा तफरी  मचा रहे तब।

 

साद   बना   अवसाद   देश   का, यह  आतंकी  चेहरा  है।

सरवर  से   मौलाना  हैं  जो,  षडयंत्र  और  भी  गहरा  है।

 

रोहिंग्या   से  नाता  इनका,  भरे  ना  शाद   विचारों   को।

समझ  चुका  है  भारत भी अब, इन गद्दारी व्यवहारों को।

 

तुमने   दिल्ली    दहलाई,  भारत    जख्मी   आघातों   से।

बातों  से   जो  नहीं  मानते,  हम   भूत  भगाते  लातों  से।

 

कथा  ऊंट   और  तंबू   की,  पढ़ी   सभी  ने  खूब  जानते।

निज   राष्ट्र   में  यह  देखेंगे,  कभी   नहीं   थे  हम  मानते।

 

हिंसा  की यह  राष्ट्रद्रोह की, विष बेल  कहाँ  तक फैली है।

अनीति, अनाचार की जमात, क्या  विष्ठा  से  भी  मैली है।

 

चूसा  शोणित  जी  भर  जितना, हक भी अपना जता रहे।

घड़ी परीक्षा  की  जब आयी, तब रूप कृतघ्न सा बता रहे।

 

लाख   थूक  लें  ये  उत्पाती,  प्रथम   किसी  से  बैर  नहीं।

गज  के  जिस  दिन पद ने चाहा, श्वानों की फिर खैर नहीं।

 

यह  विपत्ति  की  रात  बड़ी  है, प्रश्न!  उबर  हैं  कैसे पाते।

भोर  भास्कर  होते  ही  ज्यों, कीट  पतंगे  खुद मिट जाते।

 

लूट चुके भारत को कितना, कसर कहीं अब भी बाकी है।

छोड़ो भ्रम यह, छल न चलेगा अब, हर पहरे पर ख़ाकी है।

 

 नितेश भार्गव

(अनुविभागीय अधिकारी, पुलिस)




 


 

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