कविता एक घूँट शराब - डॉ शिखा माहेश्वरी

 


 

कविता

एक घूँट शराब

 

- डॉ शिखा माहेश्वरी

 

एक घूँट शराब

मैं आज बड़ा खुश हूँ।

पूछोगे नहीं क्यों?

आज मुझे कई दिनों बाद दारू हाथ में मिली है।

रोज रोज दाल सब्जी रोटी खाकर बोर हो गया था।

तीन घंटे बाद मेरा नंबर आया था,

अब सुकून ही सुकून है।

खाना खाओगे क्या?

क्या है मनहूस,

दिखता नहीं मैं दारू पी रहा हूँ।

कितने रुपये की लाये हो?

क्यों तेरे बाप के पैसों की है क्या

जो तुझे रकम बताऊँ।

जमापूंजी की पी रहा हूँ।

बाजार गए थे तो राशन की दुकान से चावल भी ले आते।

पागल है उधर कौन खड़ा रहेगा धूप में।

तुझे दिखाई नहीं देता बाहर कितनी धूप है।

उस दिन एक घंटा लाइन में लगकर राशन की दुकान से मुफ्त में राशन लाया था वो ही खाओ महीने भर।

और ज्यादा पेट में आग लगी हो तो

तू खुद चली जा राशन लेने

बच्चों को भी ले जाना

ताकि तरस खाकर जल्दी राशन मिल जाएगा।

 

माँ भूख लगी है

दूध चाय खाना कुछ तो दे दो

बेटा दूध 60 रुपये लीटर आता है

कहाँ से लाऊं

चाय बनाने को भी दूध नहीं है

राशन भी थोड़ा ही है।

रुक कुछ बंदोबस्त करती हूँ।

अभी तेरे लिए कुछ गरमागरम बनाकर परोसती हूँ।

तब तक तुम टीवी पर कार्टून देख लो।

नजर पड़ी एक खबर पर,

शराब की दुकान में कई किलोमीटर की लाइन लगी है।

बच्चा मासूमियत से बोला,

बाबा ये दूध से सस्ती है तो ये ही पीने को दे दो

बड़ी भूख लगी है।

 

डॉ शिखा माहेश्वरी

कल्याण


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